तुम भी, ग्राम ! खुले सपने हो,
रूप -रंग में वही बने हो।
कटी -बंटी हरियाली में तुम
वैसे ही तो जड़े हुए हो,
उठे तरल -श्यामल दल गुंफित
अचल में ही पड़े हुए हो ।
धरती माता की मटियाली,
भरी गोद यह रहे निराली ।
जैसी कविता के रचनाकार व उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अगौना गांव में जन्मे रामचंद्र शुक्लजी की शिक्षा मिर्जापुर के जुबली स्कूल से आरम्भ हुई । विद्यार्थी जीवन में ही आपका विवाह संपन्न हो गया। इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मिर्जापुर के मिशन स्कूल में ड्राइंग के अध्यापक हो गये। पंडित बिंदेश्वरी प्रसाद जी के सत्संग के कारण शुक्ल जी ने संस्कृत का गंभीर अध्ययन किया। बाबू काशी पसाद जायसवाल जी के निर्देशन में हिंदी लेखन की ओर प्रवृत्त हुए।शुक्ल जी के लेख आनंद कादिम्बनी तथा सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित होने लगे। काशी की नागरी प्रचारिणी सभा ने आपको हिन्दी शब्द सागर के संपादन का कार्य दिया जिसे आपने ने बड़ी लगन से पूर्ण किया।
आचार्य शुक्ल हिंदी साहित्य के प्रकांड विद्वान, उच्चकोटि के समालोचक कवि तथा युगप्रवर्तक निबंधकार थे। शुक्ल जी अपने लेखन में शब्दों के चयन के सिद्धहस्त थे। शुक्ल जी में भारतीय संस्कृति एवं देशप्रेम के प्रति सहज अनुराग था। शुक्लजी के निबंध सरस, गम्भीर, रोचक तथा हृद्रयग्राही होने के साथ-साथ बडे़ ही साहित्यिक हैं । शुक्ल जी की भाषा में संस्कृत शब्दों का समावेश मिलता है किन्तु अरबी, फारसी, उर्दू शब्दों का बहिष्कार भी नहीं है। शुक्ल जी के लेखन में प्रत्येक शब्द का स्थान निश्चित है। आचार्य शुक्ल जी की शैली को छह भागों में विभाजित किया गया है जिसमें वर्णनात्मक शैली, गवेषणात्मक, भावात्मक, तुलनात्मक, आलोचनात्मक, सामासिक या सूक्ति शैली प्रमुख हैं।
शुक्ल जी की प्रमुख रचनाओें में बुद्धचरित्र तथा ब्रजभाषा की कविताओं के अतिरिक्त हिंदी शब्द सागर, भ्रमरगीत सार, जायसी ग्रंथावली, तुलसी ग्रंथावली आदि का संपादन भी किया। शुक्ल जी ने कछ अनुवादित रचनाएं भी लिखीं। उन्होंने सूरदास, रस मीमांसा, चिन्तामणि, हिंदी साहित्य का इतिहास तथा त्रिवेणी आदि मौलिक ग्रंथ भी लिखे।