समतामूलक और सत्यशोधक समाज की स्थापना: महात्मा ज्योतिराव फुले का आधुनिकसामाजिक क्रांति केअग्रदूत के रूप में आंदोलन
डॉ प्रमोद कुमार

भारत में सदियों से चली आ रही जातिवादी व्यवस्था ने समाज को ऊँच-नीच, छुआछूत, और असमानता की जंजीरों में जकड़ रखा था। इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती देने का साहस बहुत कम लोगों ने किया, और उन्हीं विरले व्यक्तियों में से एक थे महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले। उन्होंने न केवल इस असमानता के खिलाफ आवाज़ उठाई, बल्कि “सत्यशोधक समाज” की स्थापना कर समाज को समता, शिक्षा, और न्याय की दिशा में अग्रसर किया। उनका यह प्रयास आधुनिक भारत में सामाजिक क्रांति की नींव बन गया।
महात्मा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के पुणे शहर में हुआ था। उनका परिवार माली जाति से संबंध रखता था, जिसे सामाजिक रूप से शूद्र माना जाता था। उन्होंने शुरुआती शिक्षा अंग्रेज़ी माध्यम से प्राप्त की, जो उस समय के शूद्रों और अछूतों के लिए असामान्य था। शिक्षा ने उन्हें सोचने-समझने और अन्याय के विरुद्ध सवाल उठाने की शक्ति दी।उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले भी शिक्षा और महिला अधिकारों की अग्रणी प्रचारक थीं। दोनों ने मिलकर समाज सुधार के लिए अपना जीवन समर्पित किया।
समाज की वास्तविकता और फुले का विद्रोह
19वीं शताब्दी का भारत कठोर जातिगत भेदभाव, ब्राह्मणवादी वर्चस्व और स्त्री-विरोधी मानसिकता से ग्रस्त था। उच्च जातियाँ, विशेषकर ब्राह्मण वर्ग, समाज के सभी धार्मिक, शैक्षिक और प्रशासनिक क्षेत्रों पर नियंत्रण रखते थे। शिक्षा पर उनका एकाधिकार था और निम्न जातियों को शिक्षा से वंचित रखा गया था।
महात्मा फुले ने इस सामाजिक अन्याय को समझा और इसे जड़ से मिटाने का बीड़ा उठाया। उन्होंने महसूस किया कि अगर समाज में वास्तविक परिवर्तन लाना है, तो सबसे पहले शिक्षा और आत्म-सम्मान का प्रचार करना होगा।
सत्यशोधक समाज की स्थापना
सत्यशोधक समाज (Truth-Seeker Society) की स्थापना महात्मा फुले ने 24 सितंबर 1873 को की। इस समाज का उद्देश्य था:
जाति-पाति का उन्मूलन
शूद्रों-अतिशूद्रों के अधिकारों की रक्षा
धर्म के नाम पर किए जा रहे शोषण का विरोध
स्त्रियों को शिक्षा और सम्मान दिलाना
ब्राह्मणवाद और पुरोहितवाद का खंडन
समतामूलक समाज की स्थापना
यह समाज एक प्रकार का जनांदोलन बन गया, जो धार्मिक आडंबरों और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध सच की खोज करता था। यही कारण था कि इसका नाम सत्यशोधक समाज रखा गया।
सत्यशोधक समाज की विशेषताएँ
समानता पर आधारित संगठन
सत्यशोधक समाज में कोई जातिगत भेदभाव नहीं था। कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी जाति, लिंग या धर्म से हो, इस समाज का सदस्य बन सकता था।
ब्राह्मण पुरोहितों की भूमिका का विरोध
फुले ने हिंदू धर्म में व्याप्त उस प्रथा का विरोध किया जिसमें जन्म, मृत्यु, विवाह आदि संस्कार केवल ब्राह्मण ही कर सकते थे। सत्यशोधक समाज ने अपने स्वयं के पुरोहित तैयार किए जो सामाजिक समरसता के आधार पर कार्य करते थे।
शिक्षा का प्रसार
समाज ने शूद्रों, दलितों और महिलाओं के लिए स्कूल स्थापित किए। महात्मा फुले ने 1848 में सावित्रीबाई फुले के सहयोग से पहला बालिका विद्यालय खोला था, जो अपने समय में क्रांतिकारी कदम था।
सामूहिक विवाह और मृत्यु संस्कार
सत्यशोधक समाज ने विवाह और मृत्यु संस्कार जैसे धार्मिक अवसरों पर खर्चीली रस्मों और पंडों की भूमिका को खत्म कर, सरल और सामूहिक विधियों को अपनाया।
फुले का दर्शन: समता और न्याय
महात्मा फुले का विचार था कि समाज तभी प्रगति कर सकता है जब वह सभी प्रकार की असमानताओं से मुक्त हो। उन्होंने ब्राह्मण ग्रंथों जैसे “मनुस्मृति” और “पुराणों” की आलोचना की, जो जातिगत भेदभाव को धार्मिक मान्यता प्रदान करते थे।
उनकी प्रमुख रचनाओं में शामिल हैं:
“गुलामगिरी” (1873): यह ग्रंथ अमेरिका के दास प्रथा विरोधी आंदोलन से प्रेरित था। इसमें फुले ने हिंदू समाज में शूद्रों की दशा की तुलना अमेरिका के अश्वेत गुलामों से की है।
“तृतीय रत्न”: इसमें शिक्षा, सत्य और समानता को समाज के तीन रत्नों के रूप में वर्णित किया गया है।
महिला शिक्षा और नारी मुक्ति
महात्मा फुले पहले व्यक्ति थे जिन्होंने नारी शिक्षा की आवश्यकता को समझा। उन्होंने सावित्रीबाई फुले को पढ़ाया और उन्हें शिक्षिका बनाया। उन्होंने स्त्रियों को सामाजिक बंधनों से मुक्त कर स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनाने पर ज़ोर दिया।
सत्यशोधक समाज ने विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया और बाल विवाह का विरोध किया। उन्होंने यह माना कि महिला और पुरुष दोनों को समान अधिकार मिलने चाहिए।
सत्यशोधक समाज का प्रभाव
सत्यशोधक समाज ने महाराष्ट्र और पूरे भारत में एक वैचारिक क्रांति को जन्म दिया। इस समाज के कारण अनेक शूद्र, दलित और पिछड़े वर्गों के लोगों में आत्मसम्मान की भावना जागृत हुई।
समाज सुधारक जैसे शाहू महाराज, डॉ. भीमराव अंबेडकर, और पेरियार ई.वी. रामासामी पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा।
शाहू महाराज ने फुले को “राजा” की उपाधि दी थी और उनके सिद्धांतों को लागू करने का प्रयास किया।
डॉ. अंबेडकर ने भी फुले को अपने प्रेरणास्रोतों में माना।
आलोचना और चुनौतियाँ
सत्यशोधक समाज को उस समय के परंपरावादी वर्गों से तीव्र विरोध झेलना पड़ा। ब्राह्मणवादी समाज ने फुले और उनके अनुयायियों को नास्तिक, धर्मद्रोही और समाजविरोधी घोषित किया। लेकिन फुले ने इन सभी आलोचनाओं का साहसपूर्वक सामना किया और कभी अपने विचारों से समझौता नहीं किया।
आज के संदर्भ में सत्यशोधक समाज की प्रासंगिकता
आज भी भारत में जातिगत भेदभाव, लैंगिक असमानता और शिक्षा की विषमता जैसी समस्याएँ मौजूद हैं। ऐसे में महात्मा फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज की शिक्षाएँ अत्यंत प्रासंगिक हैं।आज के समय में जब सामाजिक न्याय और समावेशिता की चर्चा होती है, तो फुले के विचार मार्गदर्शक बनते हैं।शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और समान अवसर की जो बातें आज नीति-निर्माण में हो रही हैं, फुले ने इन्हें डेढ़ सौ साल पहले ही समझ लिया था।
महात्मा ज्योतिराव फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज केवल एक संगठन नहीं था, बल्कि एक सामाजिक क्रांति का प्रतीक था। इसने हजारों वर्षों से चली आ रही सामाजिक गुलामी और भेदभाव को चुनौती दी और एक समतामूलक समाज की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया।
आज जब हम एक समावेशी, न्यायपूर्ण और प्रगतिशील भारत की बात करते हैं, तो महात्मा फुले के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उनका जीवन और कार्य हमें यह सिखाता है कि सच्चाई, शिक्षा और समता के पथ पर चलकर समाज में वास्तविक परिवर्तन लाया जा सकता है।
डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा