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“यदि समाज में न्याय नहीं है, तो संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह व्यर्थ है” ‘सामाजिक न्याय’ पर आधारित, डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के कथन की वर्तमान में प्रासंगिकता

डॉ. प्रमोद कुमार

भारतीय समाज के इतिहास में डॉ. भीमराव आंबेडकर का स्थान अत्यंत गौरवपूर्ण है। वे केवल संविधान निर्माता नहीं थे, बल्कि एक दूरदर्शी चिंतक, समाज सुधारक और सामाजिक न्याय के प्रबल पक्षधर थे। उनका यह कथन – “यदि समाज में न्याय नहीं है, तो संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह व्यर्थ है।” – भारतीय लोकतंत्र की गहराईयों को छूता है। आज जब भारत आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, तब यह कथन और भी ज्यादा प्रासंगिक हो उठा है। सामाजिक न्याय आधुनिक लोकतांत्रिक समाजों की मूल आत्मा है। यह एक ऐसा विचार है जो प्रत्येक नागरिक को समानता, स्वतंत्रता, गरिमा और जीवन के मूलभूत अधिकारों की गारंटी प्रदान करता है। सामाजिक न्याय का उद्देश्य केवल कानूनी रूप से न्याय देना नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को समाप्त करना है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में जहां जाति, धर्म, भाषा, लिंग और क्षेत्र के आधार पर विभाजन रहा है, वहां सामाजिक न्याय न केवल संवैधानिक सिद्धांत है, बल्कि सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक शर्त भी है। सामाजिक न्याय एक ऐसा सिद्धांत है जो समाज में समानता, समावेशिता, मानवाधिकारों की रक्षा और सभी वर्गों को न्यायपूर्ण अवसर प्रदान करने पर आधारित है। यह विचार सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, जातीय और लिंग आधारित असमानताओं को समाप्त करने की दिशा में कार्य करता है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में सामाजिक न्याय का महत्व अत्यंत गहन और जटिल है। यह कथन केवल एक चेतावनी नहीं है, बल्कि संविधान और समाज के बीच के अंतरसंबंध को समझने का एक माध्यम भी है। संविधान एक औपचारिक दस्तावेज हो सकता है, लेकिन समाज में जब तक नैतिकता, समानता, और न्याय की वास्तविक स्थापना नहीं होती, तब तक संविधान की आत्मा भी मृतप्राय हो जाती है।

डॉ. आंबेडकर के कथन का गहन विश्लेषण

डॉ. आंबेडकर का मानना था कि संविधान कानूनों का संकलन मात्र नहीं है; यह एक जीवंत प्रलेख है, जो समाज की आकांक्षाओं और आदर्शों का प्रतिनिधित्व करता है। परंतु अगर समाज में अंतर्निहित अन्याय, भेदभाव और शोषण कायम रहता है, तो सबसे उत्तम संविधान भी समाज को न्याय नहीं दिला सकता। उनकी चिंता का मूल कारण भारतीय समाज की गहरी जड़ें जमा चुकी असमानताएँ थीं — जातिगत भेदभाव, छुआछूत, लैंगिक भेद, आर्थिक विषमता आदि। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि यदि सामाजिक जीवन में न्याय और समानता नहीं होगी, तो राजनीतिक लोकतंत्र भी स्थायी नहीं रह पाएगा।

ऐतिहासिक संदर्भ

भारत में सदियों से सामाजिक ढाँचा जाति-आधारित असमानता पर टिका रहा है। वर्ण व्यवस्था ने समाज के बड़े हिस्से को हाशिये पर डाल दिया था। डॉ. आंबेडकर स्वयं उन वर्गों से आते थे जो सदियों से अपमान, शोषण और अन्याय का शिकार रहे थे। जब भारत स्वतंत्र हुआ और संविधान का निर्माण हुआ, तब संविधान सभा के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यही थी कि कैसे एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण किया जाए जिसमें हर व्यक्ति को समान अवसर और न्याय मिल सके। संविधान में समता, स्वतंत्रता और बंधुता जैसे आदर्शों को शामिल कर डॉ. आंबेडकर ने यह सुनिश्चित करना चाहा कि नया भारत सबका भारत हो। लेकिन वे इस तथ्य से भी भली-भाँति परिचित थे कि केवल संवैधानिक प्रावधानों से समाज की सोच नहीं बदलती। समाज का मूलभूत चरित्र बदलना अनिवार्य है। यही चिंता उनके इस कथन में व्यक्त होती है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कथन की प्रासंगिकता

आज जब हम 21वीं सदी के भारत को देखते हैं, तो डॉ. आंबेडकर का यह कथन और भी सजीव प्रतीत होता है। संविधान के आदर्शों और समाज की वास्तविकता में भारी अंतर दिखाई देता है।

1. जातिगत भेदभाव आज भी विद्यमान

दलितों पर अत्याचार की घटनाएँ अब भी आम हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट बताती है कि हर दिन भारत में दलितों पर अत्याचार के अनेक मामले दर्ज होते हैं। ऊँच-नीच की मानसिकता शहरों से लेकर गाँवों तक कायम है। आज भी दलित विद्यार्थियों के साथ भेदभाव, मंदिरों में प्रवेश निषेध, सार्वजनिक स्थलों पर अपमान जैसी घटनाएँ सामने आती हैं।
उदाहरण:
हाथरस, उत्तर प्रदेश में दलित युवती के साथ बलात्कार और हत्या की घटना ने समाज के भीतर गहरे जातिगत अन्याय को उजागर किया।

2. आर्थिक विषमता और सामाजिक अन्याय

Oxfam की रिपोर्ट के अनुसार भारत की कुल संपत्ति का एक बहुत बड़ा हिस्सा कुछ प्रतिशत अमीरों के हाथ में है।
गरीब और वंचित तबके के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार के समान अवसर उपलब्ध नहीं हैं। समाज में आर्थिक न्याय की भारी कमी ने सामाजिक न्याय को भी बाधित किया है।
उदाहरण:
कोविड-19 महामारी के दौरान प्रवासी मजदूरों का संकट इस आर्थिक और सामाजिक विषमता की क्रूर तस्वीर बनकर सामने आया।

3. लैंगिक भेदभाव

संविधान ने महिलाओं को समान अधिकार दिए हैं, लेकिन कार्यस्थलों, परिवारों और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के साथ भेदभाव अब भी व्याप्त है। घरेलू हिंसा, दहेज हत्या, यौन उत्पीड़न जैसी घटनाएँ महिलाओं की असुरक्षा को उजागर करती हैं।
उदाहरण:
निर्भया कांड (2012) और इसके बाद भी महिला अत्याचार के कई मामले, समाज में लैंगिक न्याय की कमी को दर्शाते हैं।

4. धार्मिक असहिष्णुता और सामाजिक ध्रुवीकरण

धर्म के आधार पर भेदभाव और हिंसा बढ़ी है। अल्पसंख्यकों के प्रति शंका और वैमनस्य का माहौल संविधान की धर्मनिरपेक्षता की भावना को चुनौती देता है।
उदाहरण:
दिल्ली दंगे (2020) ने धार्मिक सद्भाव और सामाजिक एकता पर गंभीर चोट पहुँचाई।

5. राजनीतिक नैतिकता का ह्रास

सत्ता प्राप्ति के लिए जाति, धर्म, और संप्रदाय के आधार पर ध्रुवीकरण आज की राजनीति का एक कड़वा सच बन गया है। भ्रष्टाचार और सत्ता का दुरुपयोग आम हो गया है।
उदाहरण:
चुनावों में पैसे और जातीय समीकरणों का खेल लोकतंत्र के आदर्शों को कमजोर कर रहा है।
सामाजिक न्याय के अभाव के दुष्परिणाम
यदि समाज में न्याय नहीं है, तो निम्नलिखित समस्याएँ उत्पन्न होती हैं:
सामाजिक अस्थिरता: असमानता और अन्याय के चलते समाज में असंतोष और विद्रोह की भावना जन्म लेती है।
लोकतंत्र का विघटन: जब न्याय नहीं होता, तो लोकतंत्र खोखला हो जाता है और निरंकुशता को बढ़ावा मिलता है।

आर्थिक विकास में बाधा: सामाजिक विषमता से प्रतिभा कुंठित होती है और उत्पादकता में गिरावट आती है।

राष्ट्रीय एकता पर खतरा: अन्याय और भेदभाव सामाजिक विघटन को जन्म देते हैं, जो राष्ट्रीय अखंडता के लिए घातक है।

समाधान और सुधार के उपाय

डॉ. आंबेडकर के विचारों के आलोक में हमें निम्नलिखित उपायों पर गंभीरता से कार्य करना चाहिए:

1. संवैधानिक नैतिकता का प्रचार

नागरिकों में संविधान के मूल्यों का प्रचार-प्रसार होना चाहिए।

स्कूलों और विश्वविद्यालयों में संवैधानिक शिक्षा को अनिवार्य बनाना चाहिए।

2. समानता और न्याय आधारित शिक्षा

शिक्षा के पाठ्यक्रम में समानता, सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और बंधुत्व के आदर्शों को सशक्त रूप से शामिल किया जाए।

वंचित तबकों के लिए विशेष अवसर और सहायता दी जाए ताकि वे मुख्यधारा से जुड़ सकें।

3. सामाजिक आंदोलनों का सशक्तिकरण

समाज सुधार आंदोलनों को प्रोत्साहित किया जाए जो जातिवाद, लैंगिक भेदभाव और धार्मिक असहिष्णुता के विरुद्ध लड़ाई लड़ें।

सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों को सुरक्षा और समर्थन दिया जाए।

4. जवाबदेह शासन व्यवस्था

शासन और न्यायपालिका को पारदर्शी, निष्पक्ष और जवाबदेह बनाया जाए।

कमजोर वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष तंत्र विकसित किया जाए।

5. आर्थिक न्याय के लिए नीतियाँ

गरीबी उन्मूलन के लिए प्रभावी योजनाएँ लागू की जाएँ।

भूमि सुधार, रोजगार गारंटी, स्वास्थ्य सेवाओं का समान वितरण किया जाए।

डॉ. आंबेडकर के विचारों से प्रेरणा

डॉ. आंबेडकर का सपना था कि भारत एक ऐसा देश बने जहाँ हर व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के सम्मान और अवसर मिले। उनके विचार आज भी हमें प्रेरित करते हैं कि हम केवल संवैधानिक प्रावधानों पर निर्भर न रहें, बल्किअपने व्यवहार में भी समानता, स्वतंत्रता और न्याय के आदर्शों को अपनाएँ।डॉभीमरावआंबेडकरजीनेकहाथा, “हमारा लक्ष्य केवल राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना नहीं था, बल्कि सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता भी उतनी ही आवश्यक है।”

उपसंहार

डॉ. भीमराव आंबेडकर का कथन आज के भारत के लिए एक दर्पण की तरह है। यह हमें स्मरण कराता है कि संविधान की सफलता केवल उसके शब्दों में नहीं, बल्कि उसके मूल्यों के समाज में व्यवहार में उतरने में निहित है। जब तक समाज में प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर, सम्मान और न्याय नहीं मिलेगा, तब तक संविधान का आदर्श अधूरा रहेगा। समाजिक न्याय केवल एक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रक्रिया है — जो निरंतर समाज को अधिक समान, मानवीय और समावेशी बनाने की दिशा में कार्य करती है। भारत में सामाजिक न्याय को केवल संविधान तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि इसे सामाजिक जीवन के हर पहलू में उतारना होगा। डॉ. आंबेडकर ने कहा था, “यदि समाज में न्याय नहीं है, तो संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह व्यर्थ है।” इसलिए, हमें एक ऐसे समाज के निर्माण की दिशा में कार्य करना चाहिए जहाँ न कोई छोटा हो, न कोई बड़ा; जहाँ हर व्यक्ति को सम्मान, अवसर और न्याय प्राप्त हो।सामाजिक न्याय केवल एक संवैधानिक लक्ष्य नहीं, बल्कि एक नैतिक और मानवीय दायित्व है। यह समाज को समता, स्वतंत्रता और भाईचारे की ओर ले जाने वाला आधार है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में सामाजिक न्याय की स्थापना ही सच्चे लोकतंत्र की नींव है। हमें मिलकर एक ऐसे समाज का निर्माण करना होगा जहाँ हर व्यक्ति को उसकी गरिमा के साथ जीने का अधिकार मिले, और वह समाज की मुख्यधारा में सम्मानपूर्वक भागीदारी निभा सके।
अतः हमें व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर एक न्यायपूर्ण समाज के निर्माण के लिए निरंतर प्रयास करना चाहिए। तभी हम डॉ. आंबेडकर के सपनों के भारत की ओर बढ़ सकेंगे — एक ऐसा भारत जहाँ संविधान की आत्मा जीवित हो, और जहाँ हर नागरिक को न्याय मिले, न केवल कागज पर, बल्कि वास्तविक जीवन में भी।


डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

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