गुलामगिरी: दलितों, पिछड़ों और महिलाओं की दुर्दशा का दस्तावेज और वर्तमान परिप्रेक्ष्य में महात्मा ज्योतिबा फुले के विचारों की प्रासंगिकता
डॉ. प्रमोद कुमार

भारत का सामाजिक ढांचा प्राचीन काल से ही गहरे जातिगत विभाजन और लैंगिक भेदभाव से ग्रसित रहा है। इस व्यवस्था ने दलितों, पिछड़ों और महिलाओं को अत्याचार, शोषण और अपमान का शिकार बनाया। 19वीं सदी में जब समाज सुधार का प्रारंभ हुआ, तब भी दलितों और महिलाओं के अधिकारों की ओर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया। ऐसे समय में महात्मा ज्योतिबा फुले एक अग्रणी चेतना के रूप में उभरे। उनकी कृति ‘गुलामगिरी’ (1873) न केवल शूद्रों और अतिशूद्रों की दासता का दस्तावेज है, बल्कि यह महिलाओं के शोषण और सामाजिक असमानता के खिलाफ भी एक क्रांतिकारी उद्घोषणा है।
भारत के सामाजिक इतिहास में महात्मा ज्योतिबा फुले का योगदान अत्यंत क्रांतिकारी रहा है। वे ऐसे समाज सुधारक थे जिन्होंने भारतीय समाज की गहरी जड़ें जमाए हुए जातिगत भेदभाव, ऊंच-नीच और शोषण के खिलाफ आवाज उठाई। फुले ने न केवल व्यावहारिक रूप से समाज सुधार के लिए कार्य किया, बल्कि उन्होंने सैद्धांतिक आधार पर भी बदलाव की आवश्यकता को प्रतिपादित किया। 1873 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ इस दिशा में एक मील का पत्थर है। ‘गुलामगिरी’ भारतीय समाज के दलितों, पिछड़ों और महिलाओं की दुर्दशा का दस्तावेज है तथा उनके उद्धार की दिशा में एक चेतना जागृति का आह्वान है। यह कृति आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस समय थी जब इसे लिखा गया था।
आज जब हम 21वीं सदी में सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं, तब फुले के विचार और ‘गुलामगिरी’ की प्रासंगिकता पहले से कहीं अधिक स्पष्ट दिखाई देती है।
गुलामगिरी: एक क्रांतिकारी दस्तावेज
‘गुलामगिरी’ का प्रकाशन उस समय हुआ जब भारत अंग्रेजों के शासन में था और आंतरिक समाज व्यवस्था जाति और धर्म के कठोर बंधनों में जकड़ी हुई थी। दलितों और पिछड़ों को शिक्षा से वंचित रखा जाता था। महिलाओं को अधिकारहीन और निम्नतर स्थिति में रखा जाता था।
धार्मिक ग्रंथों के माध्यम से शोषण को ईश्वरीय आदेश का स्वरूप दिया गया था। महात्मा फुले ने ‘गुलामगिरी’ में इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती दी। उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि भारतीय समाज की नींव ही शोषण और दासता पर टिकी है।
गुलामगिरी: रचना का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
‘गुलामगिरी’ की रचना उस समय हुई जब भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अधीन था, और साथ ही, देश के भीतर सामाजिक ढांचे में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के तहत शूद्रों और अतिशूद्रों (आज के दलितों) पर भीषण अत्याचार हो रहे थे। फुले ने देखा कि जिस धार्मिक व्यवस्था को पवित्र और अपरिवर्तनीय बताया जाता है, वही सामाजिक अन्याय और दमन का सबसे बड़ा औजार बनी हुई है।
‘गुलामगिरी’: प्रकाशन का उद्देश्य
शूद्रों और अतिशूद्रों को उनके शोषण के ऐतिहासिक और धार्मिक आधारों के प्रति सचेत करना। ब्राह्मणवादी मिथकों और ग्रंथों का तर्कसंगत ढंग से खंडन करना। समानता, स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की अवधारणा को दलितों के बीच प्रसारित करना। ब्रिटिश शासन को एक अवसर के रूप में देखते हुए शिक्षा और सामाजिक सुधारों का समर्थन करना। फुले ने ‘गुलामगिरी’ को अमेरिका में अश्वेत दासों की मुक्ति के आंदोलन से भी जोड़ा और पुस्तक को अमेरिका के मुक्तिदाताओं को समर्पित किया। इससे उनके विचारों की वैश्विक दृष्टि का पता चलता है।
गुलामगिरी: विषय-वस्तु और प्रमुख तर्क
‘गुलामगिरी’ में ज्योतिबा फुले ने संवाद शैली में ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था की कठोर आलोचना की है। पुस्तक में निम्नलिखित प्रमुख तर्क उभरते हैं:
1. ब्राह्मणों द्वारा मिथकीय इतिहास का निर्माण
फुले के अनुसार आर्य (ब्राह्मण) बाहरी आक्रमणकारी थे जिन्होंने भारत पर आकर मूल निवासियों (शूद्र-अतिशूद्रों) को पराजित कर गुलाम बना लिया। इसके बाद उन्होंने धर्मग्रंथों, मिथकों और पुराणों के माध्यम से अपनी सत्ता को वैध ठहराया।
2. शूद्रों की दासता का धार्मिक औचित्य
फुले ने यह स्थापित किया कि ब्राह्मणों ने धार्मिक कथाओं के माध्यम से शूद्रों को निम्न जाति का घोषित कर उन्हें मानसिक रूप से भी गुलाम बना दिया। उन्होंने वर्ण व्यवस्था, मनुस्मृति और वेदों में निहित भेदभावपूर्ण विचारधारा की तीखी आलोचना की।
3. शिक्षा का अधिकार
फुले ने शिक्षा को सामाजिक मुक्ति का प्रमुख साधन बताया। उनका मानना था कि ब्राह्मणों ने जानबूझकर शूद्रों और महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा ताकि वे हमेशा अधीन बने रहें।
4. धार्मिक अंधविश्वासों पर प्रहार
‘गुलामगिरी’ में धार्मिक रीति-रिवाजों, अंधविश्वासों और मूर्तिपूजा की भी तीखी आलोचना की गई है। फुले ने तर्क, विज्ञान और विवेक पर आधारित जीवन को बढ़ावा देने की बात कही।
5. महिलाओं की स्थिति
फुले ने महिलाओं की दयनीय दशा को भी रेखांकित किया और महिलाओं की शिक्षा, पुनर्विवाह और समानता के अधिकारों की जोरदार वकालत की। वे बाल-विवाह और सती-प्रथा जैसे सामाजिक कुरीतियों के भी मुखर विरोधी थे।
गुलामगिरी: शैली और प्रस्तुति
‘गुलामगिरी’ की भाषा अत्यंत सरल, स्पष्ट और जन-सुलभ है। इसमें विद्वत्तापूर्ण शब्दाडंबर नहीं है, बल्कि एक आम व्यक्ति को संबोधित करने की तीव्रता और ईमानदारी है। संवाद शैली में लिखी गई यह पुस्तक पाठक को सीधा संवाद करने का अनुभव देती है। फुले ने अनेक उदाहरणों, मिथकों की आलोचना और तर्कसंगत प्रश्नों के माध्यम से पाठक को सोचने पर मजबूर कर दिया है। उनकी शैली में जो क्रांतिकारी चेतना है, वही ‘गुलामगिरी’ को एक आंदोलनकारी ग्रंथ बनाती है।
‘गुलामगिरी’ का मुख्य उद्देश्य:
1. ब्राह्मणवादी पाखंड और उत्पीड़न का भंडाफोड़ करना।
2. दलितों, पिछड़ों और महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना।
3. सामाजिक समानता और स्वतंत्रता का प्रचार करना।
4. शिक्षा को मुक्ति का साधन बनाना।
5. एक न्यायपूर्ण, समतामूलक समाज की स्थापना के लिए प्रेरित करना। महात्मा फुले के शब्दों में, “जो जातियाँ शिक्षा से वंचित रहती हैं, वे सदा दासता में पड़ी रहती हैं। शिक्षा ही उन्हें स्वतंत्रता का अधिकार दिला सकती है।”
गुलमगिरी: दलितों, पिछड़ों और महिलाओं की दुर्दशा का चित्रण
1. दलितों और पिछड़ों की सामाजिक गुलामी
‘गुलामगिरी’ के माध्यम से फुले ने यह स्थापित किया कि ब्राह्मणों ने धार्मिक मिथकों और कथाओं के माध्यम से शूद्रों-अतिशूद्रों को सामाजिक दासता की जंजीरों में जकड़ दिया। “ब्राह्मणों ने हमारे पूर्वजों को ठगने के लिए झूठी कहानियाँ गढ़ीं, और हमें यह विश्वास दिलाया कि सेवा करना हमारा कर्तव्य है।”
मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में दलितों को अछूत घोषित कर दिया गया। शिक्षा, मंदिर प्रवेश, जलस्रोतों के उपयोग और सामाजिक भागीदारी से वंचित किया गया।
2. महिलाओं की त्रासदी
फुले ने महिलाओं की भी स्थिति पर विशेष ध्यान दिया और कहा, “स्त्रियों की दशा अगर सुधारनी है, तो हमें पहले उन्हें शिक्षा देनी होगी। शिक्षा ही उन्हें अपमान और गुलामी से मुक्ति दिला सकती है।” बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा उत्पीड़न जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ फुले ने आवाज उठाई। उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर लड़कियों के लिए स्कूल खोले।
3. धर्म का शोषणकारी उपयोग
फुले का मानना था कि धर्म का उपयोग जनता को अंधविश्वासी और दास बनाए रखने के लिए किया गया। “धर्म के नाम पर जनता को मूर्ख बनाना, उसे गुलाम बनाए रखना — यही पंडितों और पुरोहितों का काम रहा है।”
महात्मा ज्योतिबा फुले: विचारों से मुक्ति का मार्ग
1. शिक्षा: मुक्ति की कुंजी
फुले का सबसे बड़ा नारा था, “शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो।” फुले ने स्कूलों की स्थापना की, जहां लड़कियों और दलित बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जाती थी। वह मानते थे कि शिक्षा से ही आत्मसम्मान और अधिकारों की प्राप्ति संभव है। पत्र से उद्धरण (1868 में ब्रिटिश सरकार को लिखे पत्र से), “सरकार को चाहिए कि वह गरीब और निचली जातियों के बच्चों की शिक्षा के लिए विशेष प्रबंध करे, अन्यथा देश में असमानता और विद्रोह बढ़ते रहेंगे।”
2. सामाजिक समानता
फुले का आदर्श था — जाति विहीन और भेदभाव रहित समाज। “जब तक समाज में ऊँच-नीच की भावना रहेगी, तब तक सच्ची स्वतंत्रता संभव नहीं है।” वे सत्यशोधक समाज के माध्यम से एक ऐसे समाज की रचना करना चाहते थे जिसमें सभी लोग भाई-चारे के साथ जी सकें।
3. धार्मिक सुधार
फुले ने धर्म की पुनर्व्याख्या की मांग की। “सच्चा धर्म वह है जो सभी को समान अधिकार दे, और अंधविश्वास व पाखंड को नष्ट करे।” वे मूर्ति पूजा, तीर्थयात्रा, जाति-आधारित पूजापाठ के विरोधी थे और तर्कवादी विचारधारा के समर्थक थे।
4. नारी मुक्ति
महिला शिक्षा और उनके स्वतंत्र अस्तित्व पर फुले ने बल दिया।
“जिस समाज में स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जाती, वह समाज सदा गुलाम बना रहता है।” फुले के प्रयासों से महाराष्ट्र में पहली बार बालिकाओं के लिए विद्यालय स्थापित हुए।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में फुले के विचारों की प्रासंगिकता:
1. जाति व्यवस्था और सामाजिक असमानता
आज भी दलितों और पिछड़ों के खिलाफ हिंसा और भेदभाव जारी है। जातिवाद केवल सामाजिक नहीं, बल्कि आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर भी व्याप्त है।फुले की यह चेतावनी आज भी उतनी ही सटीक है – “जो जातियां खुद के उत्थान के लिए संघर्ष नहीं करतीं, वे सदैव दूसरों की दास बनकर रहती हैं।”
2. शिक्षा में असमानता
आज भी शिक्षा में व्यापक असमानता दिखाई देती है। दलितों और आदिवासियों में उच्च शिक्षा तक पहुँच सीमित है। सरकारी योजनाओं के बावजूद शिक्षा का स्तर संतोषजनक नहीं है। फुले का सपना था कि हर बच्चा, चाहे वह किसी भी जाति या वर्ग का हो, शिक्षा के माध्यम से अपने भाग्य का निर्माण करे।
3. महिलाओं की स्थिति
हालांकि महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है, फिर भी
घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, लैंगिक भेदभाव जैसी समस्याएं बनी हुई हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा अब भी चुनौती है। फुले के विचार महिलाओं के अधिकारों के प्रति निरंतर लगातार जागरूकता की प्रेरणा देते हैं।
4. धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वास
आज भी धर्म के नाम पर घृणा और हिंसा फैलाई जा रही है।जाति और धर्म के नाम पर समाज का ध्रुवीकरण हो रहा है और मानवता में जहर घोला जा रहा है जिससे मानवता शर्मसार हो रही है। फुले ने कहा था, “सच्चा धर्म वह है जो प्रेम, करुणा और न्याय की स्थापना करे, न कि घृणा और भेदभाव की।”
महात्मा फुले का ‘गुलामगिरी’ केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि एक सामाजिक क्रांति का घोषणापत्र है। यह दलितों, पिछड़ों और महिलाओं के शोषण के विरुद्ध विद्रोह का उद्घोष है। आज भी जब समाज में जाति, लिंग और वर्ग आधारित असमानताएं मौजूद हैं, फुले के विचार अत्यंत प्रासंगिक और प्रेरणादायक हैं। फुले ने जो चेतना जलाई, वह आज भी समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के पथ पर हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। महात्मा फुले ने इस कृति के माध्यम से भारतीय समाज की आत्मा को झकझोरने का कार्य किया। उन्होंने शूद्रों, दलितों और महिलाओं के लिए समानता और स्वतंत्रता का सपना देखा, जो आज भी अधूरा है। आज जब हम समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की बात करते हैं, तो ‘गुलामगिरी’ हमारे लिए एक आदर्श पाठ बन जाता है। इस पुस्तक को पढ़ना न केवल अतीत को समझने की कुंजी है, बल्कि वर्तमान में सामाजिक बदलाव लाने के लिए भी प्रेरणा है। फुले का संदेश आज भी स्पष्ट है — “जागो, पढ़ो और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करो।”
महात्मा ज्योतिबा फुले ने शूद्रों, दलितों और महिलाओं के लिए समानता और स्वतंत्रता का सपना देखा, जो आज भी अधूरा है। आज जब हम समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की बात करते हैं, तो ‘गुलामगिरी’ हमारे लिए एक आदर्श पाठ बन जाता है। अतः, महात्मा फुले का संदेश और ‘गुलामगिरी’ की क्रांति तब तक जीवित रहेगी जब तक हम एक ऐसे समाज की स्थापना नहीं कर लेते जो हर प्रकार के अन्याय, भेदभाव और शोषण से मुक्त हो।
“समानता ही सच्चा धर्म है।”
— महात्मा ज्योतिबा फुले
डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा